बुधवार, 23 जून 2010

कितनी पगली थी मैं

मैं एक बेहद छोटे से कसबे में पली बढ़ी हूँ...आज इतने बड़े शहर में रहती हूँ...बड़ी बड़ी इमारतें बड़ी बड़ी गाड़ियाँ...चारो तरफ रौशनी....लेकिन फिर भी ऐसा लगता है अँधेरे में खड़ी हूँ...आज वो बचपन याद आता है...बचपन क्या.... बड़ी थी.. लेकिन स्मार्ट नहीं थी आजकल के बच्चों की तरह...मेरा छोटा सा क़स्बा राठ ...इतना विकसित नहीं था..लेकिन शायद तभी सब खुश थे...कभी कोई मारुती आकर भी रूकती... तो भाग के उसे देखने जाती थी...और अगर कोई बड़ी गाड़ी आ गयी तब तो ख़ुशी का ठिकाना ही नहीं रहता था...घर के बाहर खड़ी गाड़ी हो या आस पास आई कोई गाड़ी मैं उसे छूने पहुच जाती थी ....किसी न किसी बहाने से...और सोचती थी काश मुझे इसपे बैठने को मिल जाये...मेरे बब्बा कस दोस्त बड़े बड़े शहरों से मिलने आते थे...बहुत विद्वान थे मेरे बब्बा....इसलिए....और मैं अपने बब्बा की लाडली  काको...तो एक बार उनके मित्र ने कहा गुडिया आओ तुम्हे घुमा लाते हैं..फिर क्या था जैसे जन्नत मिल गयी थी...जब मैं और बड़ी हुई तो घर में पापा ने गाड़ी भी ला दी...लेकिन वो जब पापा महीने में एक बार आते तो ही बैठने को मिलता था..जैसे ही आते तो कोई न कोई बहाना मैं और मेरे भाई बहने  निकालते की कैसे गाड़ी पर बैठा जाये....उन दिनों अगर गाँव से ट्रक्टर या बैल गाड़ी आ जाती तो उसकी तरफ देखना तो शान के खिलाफ समझते थे....
     आज मैं उस छोटे से अपने घर से निकलकर इतने बड़े शहर  आ गयी हूँ...आज चाहूँ तो हर रोज़ बड़ी बड़ी गाड़ियों पर बैठूं...पर आज उस बैलगाड़ी पर बैठने को दिल करता..उस छोटे शहर   में रहने को दिल करता..हर रोज़ अपने उस  शहर   से दूर होने के दर्द को आँखों से निकालने की कोशिस करती हूँ ....लेकिन असफल होती हूँ ...अब लगता है कितनी पागल थी मैं....कभी घर जाती हूँ तो वो छोटा सा क़स्बा भी अब बड़ी बड़ी इमारतों से ढक गया है...जिन सड़कों  पे हम दौड़ा करते अब चलने लायक भी नहीं बचीं....लेकिन अब भी वहां का बचपन वैसा ही है....बस फर्क है तो बैलगाड़ी और बड़ी गाड़ी का....अब बचपन बैलगाड़ी नहीं जनता वो तो पजेरो और बी एम् डब्लू में बैठने की khwahis  करता है....पर आज खुद को देख के लगता है की कितनी पागल थी मैं.....