शुक्रवार, 21 अगस्त 2015

Mitti ka sansar

तपते रास्तों पर चलते चलते हम कब मिटटी से पत्थर की शक्ल ले लेते हैं पता ही नहीं चलता। और स्नेह की चाँद बूंदें पड़ते ही इस पत्थर की ज़मीन से भी भाप निकलने लगती है। लेकिन ये बूंदें भी पत्थर को वो माटी नहीं बना पातीं जो कोई भी आकर आसानी से ले ले ,
    दोपहर की कड़ी धुप में सड़क पर चलते हुए दो मासूम से चहरे हाथ में गिलास लिए हुए सामने आ खड़े हुए अपनी ही उधेड़ बन में लगी मैं लगभग उनसे टकरा ही गयी गिलास से चाँद बूंदें छलक के गिरी तो एहसास हुआ की मैंने कुछ गलत कर दिया ,जल्द ही मैंने सॉरी बोल दिया।  दोनों बच्चे मेरे सामने गिलास बढ़ाये हुए खड़े थे चाँद पलों में समझ आया की मुझे वो शरबत ऑफर कज जाहे थे , मैंने मुस्कुराते हुए एक बच्चे के हाथ से शरबत का गिलास ले लिया , तभी दूसरे बच्चे ने मायूस होकर मुझसे कहा आपने मेरा गिलास क्यों नहीं लिया , मैंने भी जल्दी से गिलास खत्म करके कहा लाओ मैं आपका शरबत भी ले लेती हूँ।  दोनों बच्चे खुसी से झूम उठे जैसे उनको कोई प्राइज मिल गया हो। और फिर अपने काम में लग गए।     इस तेज़ धुप में वो मासूम सभी राह चलने वालों को शरबत पिला रहे थे , उनके चेहरों से लग रहा था मनो ये उनका सबसे प्रिय खेल हो दिल तो किया चंद पल उनके पास रुक जॉन, उनकी मदद करूँ और उनकी ही तरह मैं भी खुश हो लूँ , अपना बचपन जी लूँ , लेकिन बचपन के पैरो में उम्र की उमीदें इतनी भरी थीं कि ठहर ही ना  सकी।  और आगे बढ़ गयी ये सोचते हुए कितनी अच्छी होती है माटी जिस रूप में ढालो ढल जाती है , और हम पत्थर ही रह जाते हैं। .



 "माटी के पुतलों से ईश्वर के ब्रम्हांड बनते हैं ,
बचपन में खायी माटी से भीतर के इंसान बनते हैं। "
 

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